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अब विश्व के लिए बड़ा खतरा बन रही है गर्मी

मोटापा, डिमेंशिया और एंटीबायोटिक प्रतिरोधकता की ही तरह भीषण गर्मी भी आने वाले दशकों के लिए बड़ा खतरा साबित होगी। किसने सोचा होगा कि उत्तरी-पश्चिमी अमरीका और पश्चिमी कनाडा भीषण गर्मी के चलते आपातकाल घोषित करेंगे? अमरीका में पोर्टलैंड, ऑरेगॉन और कनाडा के वैंकूवर में तापमान 49.5 डिग्री सेल्सियस के स्तर पर पहुंच गया है। अचरज की बात है कि यूरोप और साइबेरिया तक में गर्म हवाएं चल रही हैं। एक अनुमान के अनुसार 2018 में भीषण गर्मी के कारण भारत और चीन में 65 वर्ष से अधिक उम्र के तीन लाख लोगों की मौत हो गई थी। मेडिकल जर्नल लॉसेट में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह वर्ष 2000 में गर्मी से हुई मौतों से 45 प्रतिशत अधिक है। वर्ष 2003 में भीषण गर्मी के कारण यूरोप में 70,000 लोगों की मौत हो गई, परन्तु इसका खुलासा 2008 में हुआ। इसके अलावा, कई और मौतें हो सकती हैं, जो अप्रत्यक्ष रूप से इस कारण से हुई। हैं। जैसे हृदय रोग, अंगों का निष्क्रिय हो जाना आदि परन्तु प्रत्यक्ष तौर पर इसे गर्मी का असर नहीं माना गया। यह एक प्रकार से ‘साइलेंट किलर’ है, जिसका पता केवल तभी लगता है, जब आप अस्पताल में पुराने रेकॉर्ड खंगालते हो । जलवायु परिवर्तन के चलते लू का चलना आम बात हो गई है और यह बढ़ता ही जा रहा है। आज हम सब मिल कर सालाना 50 बिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं। यह 1990 के उत्सर्जन से 40 फीसदी ज्यादा है। अगर हम सालाना उत्सर्जन में दस प्रतिशत की कटौती करते हैं और वर्ष 2050 तक कार्बन तटस्थता का दर्जा पा जाते हैं, तब भी पिछले उत्सर्जनों के प्रभाव से तापमान में वृद्धि जारी रहेगी। समुद्र के बढ़ते जल स्तर, पिघलते हिम खंड, मौसम की चरम स्थितियां, चक्रवाती तूफान, अतिवृष्टि, फसलों में बदलाव आदि ग्लोबल वार्मिंग के ही साक्ष्य है। इस समस्या का इलाज संभवतः जानकारी इंफ्रास्ट्रक्चर और नए तौर तरीकों वाले आवास निर्माण में छिपा है। वर्ष 2017 में फेसबुक ने तब संभवतः बहुत सारे लोगों की जानें बचाई, जब ढाका की करीब आधी आबादी को भीषण गर्मी की चेतावनी दी गई। इस दिशा में शिक्षा और जानकारी संबंधी प्रचार प्रसार के लिए डिजिटल माध्यमों का उपयोग शीघ्र चेतावनी और पूर्व तैयारी में सहायक होगा। हो सकता है कुछ समय के लिए स्कूल बंद करने पड़ें। सार्वजनिक स्थल जैसे छाया वाले क्षेत्र, वाटर पार्क या एयरकंडीशन हाल वाले विश्राम स्थल इस विषम स्थिति के लिए तैयार रखने होंगे। इन सार्वजनिक स्थलों के लिए बिजली-पानी की आपूर्ति सुचारु रखनी होगी। [siteorigin_widget class=”SiteOrigin_Widget_Image_Widget”][/siteorigin_widget] हमारे मौजूदा घरों और कार्यालय भवनों को अनुकूलित किया जाना चाहिए। दीवारों और छतों को सफेद रंग में रंगने जैसे नवाचारों के जरिए उनको अधिक गर्मी प्रतिरोधी बनाया जाना चाहिए। इस तरह के कदमों को सभी निर्माण गतिविधियों का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। शहरी नियोजन और वनीकरण न केवल छाया प्रदान करता है, बल्कि हवा को ठंडा भी करता है। भारत सरकार और राज्य सरकारों को स्थाई शीतलन के लिए योजनाएं विकसित करने की आवश्यकता है। इसका अर्थ है भवनों, एयर कंडीशनरों और पंखों के लिए ऊर्जा दक्षता कार्यक्रम बड़े पैमाने पर कूल रूफ कार्यक्रमों को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। एक सफेद पॉलिथीन छत कोटिंग 2 डिग्री सेल्सियस से 5 डिग्री सेल्सियस तापमान का अंतर कर सकती है। इसका इस्तेमाल गरीब भी आसानी से कर सकते हैं। मोटापा, डिमेंशिया और एंटीबायोटिक प्रतिरोधकता की तरह भीषण गर्मी भी आने वाले दशकों के लिए संभावित खतरा साबित होगी। कोरोना महामारी की गंभीरता का अनुमान नहीं लगाया जा सकता था, लेकिन भीषण गर्मी से जुड़े संकट का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। कोई बहाना बनाए बिना समस्या की गंभीरता को समझना होगा।   https://www.patrika.com/opinion/climate-change-heat-wave-becoming-a-big-threat-to-the-world-6989353/

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डेटा सम्प्रभुता : क्या नियंत्रण सरकारों के बस की बात है

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भारत में ओटीटी की बढ़ती संभावनाएं

भारत में मनोरंजन सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का मुख्य अंग है। यह श्रव्य-दृश्य माध्यम जितना प्रभावशाली है,उतने ही इसके स्रोत बढ़ चुके हैं। सिनेमा,टीवी,इंटरनेट वीडियो के संदर्भ में भारत अग्रणी है। पिछले 3-4 दशक से टीवी शोज ने दर्शकों को अपने सम्मोहन में बांध रखा है और सिनेमा के मुकाबले इसकी पहुंच व्यापक है। आज खेल,खबरें,मनोरंजन,सिनेमा आदि विभिन्न विषय सामग्री टीवी पर उपलब्ध है। यह परिवर्तन लाने वाली ताकतें स्थानीय से लेकर विश्व स्तरीय हैं। भारत इंटरनेट सुविधा सम्पन्न युवा राष्ट्र है। यहां एकसमान रूप से मांग बनी रहती है, क्योंकि हमारा बाजार ऐसा नहीं रहा,जहां उपभोक्ता कम हो और आपूर्ति ज्यादा,बल्कि यहां उपभोक्ता ज्यादा हैं,लेकिन सबके पास थोड़ा नेट है। पहली बार एंसा हुआ है कि इंटरनेट आधारित तकनीकों के संदर्भ में काफी हद तक आय एवं वर्ग के बीच का अंतर खत्म हो गया। इसका श्रेय जाता है जियो को, जिसने व्यापक पहुंच के जरिये जन-जन तक इंटरनेट पहुंचाया। नतीजा यह हुआ कि हर उपभोक्ता को फायदा हुआ और मीडिया के उपभोग स्वरूप में आया बदलाव जगजाहिर है। [siteorigin_widget class=”SiteOrigin_Widget_Image_Widget”][/siteorigin_widget] सवाल यह है कि क्या दर्शकों का टीवी से ज्यादा ओवर द टाॅप(ओटीटी) चैनलों की ओर रूझान बदले भारत की नई तस्वीर है? या फिलहाल ऐसा कहना जल्दबाजी होगी,क्योंकि हो सकता है आंकड़े भारत जैसे बड़े दर्शक बाजार के बारे में सही स्थिति न बता पाएं। अक्टूबर 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार,देश की करीब आधी जनसंख्या के पास इंटरनेट सुविधा है। इनमें से 90 प्रतिशत से ज्यादा उपभोक्ता स्मार्ट फोन पर नेट चलाते हैं। मोटे तौर पर यह उत्तरी अमरीका और पश्चिमी यूरोप के इंटरनेट उपभोक्ताओं की कुल संख्या के बराबर है। भारत में डेटा यूसेज वास्तव में अधिक है! इन प्लैटफाॅम्र्स में डिजनी हाॅटस्टार के पास खेल प्रसारण के अधिकार हैं। अमेजन और नेट फ्लिक्स ओरिजनल रचना दिखाते हैं। मैक्स प्लेयर विज्ञापन लेता है। जी 5 व अन्य क्षेत्रीय कंटेंट को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं। 2021 के लिए बेन ईवान की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, डिज्नी,नेटफ्लिक्स,काॅमकास्ट,यूट्यूब व अन्य सालाना कंटेंट पर करीब 10 बिलिययन डाॅलर का बजट ले कर चलते हैं। एप एनालिटिक्स प्लैटफाॅर्म एप एनी के अनुसार 2020 में भारतीयों ने फोन पर प्रतिदिन 4.6 घंटे बिताए जबकि 2019 में 3.3 घंटे। स्ट्रीमिंग चैनल भारत में विकास की अपार संभावनाएं देख रहे हैं,चीन ने तो वैसे भी उनके व्यवसाय के लिए अपने दरवाजे बंद कर रखे हैं। नेटफ्लिक्स ने 2019 व 2020 में भारतीय कंटेंट के लिए 400 मिलियन पाउंड का निवेश किया जबकि भारत का उनकी वैश्विक उपस्थिति में काफी कम योगदान है लेकिन भारत से नेट फ्लिक्स को वैश्विक इस्तेमाल के लिए पुरस्कार योग्य कंटेंट मिला है। ओटीटी के अगले 100 मिलियन सब्सक्राइबर पाने के लिए बड़े स्ट्रीमिंग चैनलों में चल रही प्रतिस्पद्र्धा के बीच भारत प्रयोगों,बाजार अविष्कारों,कीमतों एवं रियायतों का साक्षी बन रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि ओटीटी के कंटेंट रचने वाले केवल एक छोटे से वर्ग पर ही फोकस कर रहे हैं, जिसकी सोच पाश्चात्य या वैश्विक है। क्या यह सारे भारतीयों को एक ही प्रकार से लुभा पाएगा? माना कि इस क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं जो समय के साथ सामने आएंगी लेकिन ऐसा नहीं लगता कि भारत में जल्द ही यह पैसा कमाने की मशीन बन जाएगा। यू ट्यूब और मैक्स प्लेयर के सर्वाधिक उपभोक्ता हैं। हाॅटस्टार इस मामले में नेटफ्लिक्स से आगे है। (हाॅटस्टार का शुल्क पांच गुना कम है तो दर्शक भी 6-8 गुना ज्यादा हैं)। नेटफ्लिक्स इंडिया एपीएसी में अपने औसत शुल्क का आधा ही भारत में वसूलता है। अन्य स्ट्रीमर्स के शुल्क भी कम है। ज्यादा दर्शकोें तक पहुंच बनाने के लिए सस्ते और मोबाइल विशिष्ट प्लान उपलब्ध हैं। [siteorigin_widget class=”SiteOrigin_Widget_Image_Widget”][/siteorigin_widget] भारत में क्रीमी लेयर बढ़ रही है तो साथ ही निचला तबका भी ऊपर उठ रहा है। इसलिए ग्रामीण इलाकों में बड़ा बाजार उभरने की संभावना है,जहां अभी तक टीवी ही नया आकर्षण माना जाता था। हालांकि अमरीका की ही तरह भारत में भी टीवी और ओटीटी समानांतर रूप से साथ चलते रहेंगे। प्रिंट का भी भविष्य उज्ज्वल है। इसके अलावा ओटीटी के लिए नियमन से कंटेंट रचियताओं को थोड़ी मुश्किल आ सकती है। इस प्रकार हम त्रिस्तरीय माध्यमों के साक्षी होंगे-ओटीटी, टेलीविजन और क्षेत्रीयं कंटेेट माध्यम।

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’80/20′ सिद्धांत से बदलें सोच

जिंदगी में किसी भी मोर्चे पर सफल होने के जरूरी यह जानना है कि किस रास्ते से आगे बढऩे पर अनुकूल नतीजे हासिल होंगे। बिजनेस में भी यही बात लागू होती है। हमें यही समझने की जरूरत है कि वे कौन-सी बातें हैं जिनसे नतीजे बिल्कुल पलट सकते हैं, जिनसे हार को जीत में और नाकामयाबी को कामयाबी में बदला जा सकता है। 1999 में जीरोक्स कॉर्पोरेशन में दो शोध हुए। उनमें पाया गया कि ऑनलाइन दुनिया की मात्र 5 फीसदी वेबसाइट ऐसी हैं जिन्हें कुल वेबसाइट विजिट का 75 फीसदी हिस्सा हासिल होता है। दूसरे शोध का विषय अतीत की हॉलीवुड फिल्मों का रेवेन्यू था। पाया गया कि महज 1.3 फीसदी फिल्में थीं, जिन्होंने कुल रेवेन्यू का 80 फीसदी हिस्सा कमा कर दिया था। इसाक पिटमैन के शॉर्टहैंड का आविष्कार करने के पीछे भी कुछ ऐसा ही गणित था। उन्होंने देखा कि 70 फीसदी बातचीत में प्रयुक्त होने वाले शब्दों की संख्या करीब 700 ही है। नई ऑक्सफोर्ड शॉर्टर इंग्लिश डिक्शनरी में 5 लाख से ज्यादा शब्द हैं। इसका अर्थ यह है कि अंग्रेजी भाषा के 80 फीसदी इस्तेमाल में आने वाले शब्दों की संख्या 1 फीसदी से भी कम है। इस पैटर्न का सबसे पहले इटली के अर्थशास्त्री विल्फ्रेडो पैरीटो ने पता लगाया था। 1897 में उन्होंने इसके जरिए इटली की आबादी में धन-दौलत के वितरण की व्याख्या की थी। उन्होंने पाया कि 20 फीसदी से कम लोग 80 फीसदी आबादी की कुल कमाई से ज्यादा कमाते हैं। उन्होंने जिस भी देश का अध्ययन किया, वहीं यह पैटर्न पाया। बीते 50 सालों के दौरान पैरीटो का यह सिद्धांत आम तौर पर ’80/20 का सिद्धांत’ कहलाने लगा है। बिजनेस में भी 20 फीसदी ब्रांड 80 फीसदी बिक्री पर कब्जा जमाए हुए देखे जा सकते हैं और करीब 20 फीसदी बिक्री 80 फीसदी लाभ देती है। इसी तरह 80 फीसदी अपराधों के पीछे 20 फीसदी अपराधियों का हाथ होता है, तो 80 फीसदी दुर्घटनाओं की वजह 20 फीसदी वाहन चालक होते हैं। इतना ही नहीं, आप 80 फीसदी जिन कपड़ों को पहनते हैं, वे 20 फीसदी ही होते हैं। कंपनी के 80 फीसदी लाभ के पीछे 20 फीसदी कर्मचारी होते हैं, 80 फीसदी ग्राहक सेवा संबंधी मसलों के पीछे 20 फीसदी ग्राहक होते हैं। मीटिंग में लगे कुल समय के 20 फीसदी हिस्से में 80 फीसदी निर्णय लिए जाते हैं, वगैरह वगैरह। लेकिन ’80/20′ कोई जादुई फार्मूला नहीं है। दरअसल, यह कतई जरूरी नहीं है कि यह हमेशा एकदम ’80/20′ ही हो। कुछ मामलों में तो अनुपात का अंतर और भी अधिक हो सकता है। अधिकांश मामलों में यह एकदम सही है कि 80 फीसदी या इससे ज्यादा कोशिशें मोटे तौर पर अप्रासंगिक होती हैं। इस दुनिया में कुछ ही अहम बातें हैं जिनका सही में कोई मतलब होता है। हमें उन्हीं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। बाकी सब ध्यान भटकाने के लिए है, हमें उसे अनदेखा कर देना चाहिए। [siteorigin_widget class=”SiteOrigin_Widget_Image_Widget”][/siteorigin_widget]

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दुनिया कोई मशीन नहीं बल्कि इसका एक अस्तित्व है

इंटरनेट पर निर्भर आज की दुनिया पहले से ज़्यादा जटिल और अव्यवस्थित हो गयी है। इससे अस्थिरता, अनिश्चितता, मुश्किलों और असपष्टता में बढ़ोतरी हो रही हैं। इनका सामना करना हमें मुश्किल लगता है । एक सरल, प्रकृति से जुड़ी, कृषि आधारित समाज से हम एक औद्योगिक और फिर नेटवर्क संचालित सोसाइटी की ओर बढ़े हैं. अब हमें प्रकृति से दोबारा सीखना चाहिए। प्रकृति मुश्किलों को आसान बना देती है, प्रकृति जटिलता पर सरलता लाती है। प्राकृतिक व्यवस्था में सरलता हैं। मुश्किल का मतलब पेचीदा नहीं है। दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण चीजें – जैसे कि जागरूकता, अर्थव्यवस्था और समाज- इन सबकी कोई योजना नहीं है । ये बस अपने आप पनप जाते हैं ।मनुष्यों द्वारा बनाए गए वर्गीकृत संगठन एकमात्र व्यवस्था हैं जो खुद के द्वारा व्यवस्थित नहीं है । इसमें मॉडर्न कॉर्पोरेशन भी शामिल है। मैं यह सलाह नहीं दे रहा हूं कि हम अव्यवस्थित हो जाएं और चीजों को योजनाबद्ध न करें ।पर मार्किट की योजना बनाने से उसका पालन करना बेहतर है।  ऊपर से बात थोपने की तुलना में यह देखना बेहतर है कि कॉर्पोरेट आर्गेनाइज़ेशन की निचली श्रेणी से क्या उभरकर सामने आता है  ।  अनुकूल परिस्थिति के अनुसार संसाधन तैनात करना चाहिए ।  इंडस्ट्रियल रेवोलुशन के बाद से, हमने दुनिया को मैकेनिकल नज़रिए से देखना शुरू कर दिया है.  बेहतर प्रबंधन करने के लिए, हमें प्रत्येक संगठन को देखना होगा — चाहे वह एक कंपनी, क्लब, संयुक्त परिवार या समाज हो- हमें इसे मशीन के रूप में नहीं बल्कि एक जीव के रूप में देखना होगा । जब हम ऐसा करते हैं, तो हम देखेंगे: [siteorigin_widget class=”SiteOrigin_Widget_Image_Widget”][/siteorigin_widget] एक लिविंग ऑर्गेनिज़म का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। इसका अपना खुद का दिमाग और इच्छा होती है जब की मशीनें निर्देशों का पालन करती हैं. ऑर्गेनिज़म आगे बढ़ते हैं लेकिन मशीनें नहीं बढ़तीं हैं ।हमें विकास के कारण होने वाली अव्यवस्था के अनुकूल होना चाहिए । जीव व्यवस्था आत्म-नवीनीकरण कर पाते हैं इसी तरह, संगठन भी सफलता से ताकत हासिल करती हैं ।मशीनें फायदे या नुकसान, अच्छी या बुरी भावनाओं की परवाह किये बिना काम करती हैं । संगठन नेटवर्क और संबंध बना लेने में समर्थ हैं लेकिन मशीनें नहीं । मॉडर्न कॉर्पोरेशन एक बड़ी मार्किट के पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा हैं । केवल जीवित चीजें सीख सकती हैं परन्तु संगठन नेटवर्क से सीख ले सकता हैं ।ज्ञान एक साथ काम करने के एक तरीके के रूप में मौजूद हो सकता है, लेकिन निश्चित रूप से इसके सदस्यों से स्वतंत्र नहीं रह सकता है। ऑर्गेनिज़म्स में विशिष्टता होती है जबकि एक मशीन को स्टैन्डर्डाइज़ करना पड़ता है. अगर किसी मशीन में उसके डिज़ाइन के अलावा अन्य विशेषताएं हैं, तो यह बहुत अच्छी मशीन नहीं है। युवा वयस्क और बूढ़ेऑर्गेनिज़म प्रत्येक अपने अनोखे चरित्र का प्रदर्शन करते हैं. इसी तरह विभिन्न चरणों के अन्दर ऑर्गेनाइज़ेशंस की अपनी संस्कृतियाँ हैं. दुनिया की वृद्धि, विकास और एकता लोगों द्वारा बनाई गई संस्थाओं पर निर्भर करती है. हमें निश्चित मशीनों के तरीकों से परे इसका सामना करना चाहिए ऐसा ज़रूरी नहीं है। लेकिन हमें बदलाव को गले लगाना चाहिए। एक युवा देश के रूप में भारत को मूल्यवान संस्थानों की ज़रूरत है । आइए हम मानवीय दृष्टिकोण से प्राथमिकता को समझें। यही राष्ट्रीय महानता का मार्ग है।

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